Friday 26 July 2013

मंज़ूर हाशमी की गज़ले

मंज़ूर हाशमी 

मंज़ूर हाशमी 

नई   ज़मीं  न  कोई   आसमान  माँगते  है
 बस एक गोशा-ए-अमन-ओ-अमान  माँगते है

कुछ अब के धूप का ऐसा मिज़ाज बिगड़ा है
दरख्त  भी तो यहाँ  साए-बान  माँगते है

हमें  भी आप से  इक  बात अर्ज़ करना है
पर अपनी जान की पहले अमान  माँगते है

कुबूल कैसे करूँ उनका फैसला कि ये लोग
मिरे  खिलाफ़  ही मेरा  बयान माँगते है

हदफ़ भी मुझ को बनाना है और मेरे हरीफ़ 
मुझी  से  तीर  मुझी से  कमान माँगते है

नई फज़ा  के परिंदे  है कितने  मतवाले
कि बाल-ओ-पर से भी पहले उड़ान माँगते है
* * *
न सुनती है न कहना चाहती है
हवा इक़ राज़ रहना चाहती है

न जाने क्या समाई है कि अब की

नदी हर सम्त बहना चाहती है

सुलगती राह भी वहशत ने चुन ली

सफ़र भी पा बरहना चाहती है

तअल्लुक़ की अजब दीवानगी है

अब उस के दुख भी सहना चाहती है

उजाले की दुआओं की चमक भी

चराग़-ए शब में रहना चाहती है

भँवर में आँधियों में बादबाँ में

हवा मसरुफ़ रहना चाहती है
* * *
सर पर थी कड़ी धूप बस इतना ही नहीं था
उस शहर के पेड़ों में तो साया ही नहीं था

पानी में जरा देर को हलचल तो हुई थी

फिर यूँ था कि जैसे कोई डूबा ही नहीं था

लिख्खे थे सफर पाँव में किस तरह ठहरते

और ये भी कि तुम ने पुकारा ही नहीं था

अपनी ही निगाहों पे भरोसा न रहेगा

तुम इतना बदल जाओगे सोचा ही नहीं था
* * * 
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग जलता है

सफ़र में अब के ये तुम थे कि ख़ुश-गुमानी थी

यही लगा की कोई साथ साथ चलता है

लिखूँ वो नाम तो कागज़ पे फूल खिलते है

करूं ख़याल तो पैकर किसी का ढलता है

उम्मीदों ओ यास की रुत आती जाती रहेती है

मगर यक़ीन का मौसम नही बदलता है
मंज़ूर हाशमी 

Sunday 21 July 2013

किताबें बोलती हैं - 5

मुझ को महसूस कर के देख : सुमन अग्रवाल


ख़ुदारा लाज मेरे बालो-पर की रख देना 
उड़ान पर हूं मैं इज्ज़त सफ़र की रख देना 

कहीं पे रास्ता भटकूं अगर मेरे मौला 
वहीं पे नींव नई रह गुज़र की रख देना 

यही दुआ है,यही इल्तजा है,ए मालिक 
मेरे हर ऐब पे चादर हुनर की रख देना 

न हो कहीं पे भी फ़ाक़ा-कशी की मजबूरी 
सदा ये आन ग़रीबों के घर की रख देना 

न लौट आए वो टकराके आसमानों से 
दुआ जो हाथ पे रखना असर की रख देना 

हर एक रात के हमराह जल रहा हूं 'सुमन'
मेरे चिरागों में कुव्वत सहर की रख देना 

          मेरे गांव के आस-पास के शहरो में किताबें बहुत ही कम मिलती हैं !दोस्त जोगि जसदनवाला के घर कई बार जाने का मौका मिलता है ! जोगि की अपनि बहेतरीन लायब्रेरी है ! एक बार जोगि ने मुजे एक किताब हाथ मे थमा दी थी- मुझ को महसूस कर के देख - शायर है सुमन अगवाल !


मैं बच्चे की तरह मेले में गुम हूँ
कोई आकर मेरा बाजू पकड़ ले 

          ए वही शायर है जिसका जिक्र हम आगे की पोस्ट बोलती है २ मे शायरा रेखा अग्रवाल की किताब यादों का सफर मे हूआ था ! सुमन जी का सारा परिवार साहित्य से जूडा हुवा है ! पत्नि, बेटा, बहू, भाइ सब ! जोगि ने कइ बार सुमन जी क जिक्र करते है कि s.m.s. से उनसे बात होती रहेती है ! इस बात का समर्थन किताब से मिलता है कि सुमन जि s.m.s. के कितने शोखिन है !



          शायर या कवि के ख्याल कभी भी पुराने नहीं होते सदा ही नयें और ताजगी भरे रहेते हैं ! और वहीं शायर  है जो  शायरी में कुछ नयापन लाये जिसे किसी भी दौर में कोई भी पढ़े उसी दौर का लगे ! सुमनजी ऐसे ही शायर है ! जो अपनि ग़ज़लों के कारण अपनि एक अलग पहेचान बना सके है ! 

 पकड़ने को ख़ुशी की एक तितली,
मैं हर ग़म से उलज़ता जा रहा हूँ !

मुझे मंजिल ने ख़ुद आकर कहा  है,
मैं कुछ आगे निकलता जा रहा हूँ ! 


          उर्दू क मशहूर शायर राहत इन्दौरी ने इस किताब में सुमन जी के बारे में और उनकी शायरी के बारे में लिख्खा है :-
          ' सुमन अग्रवाल जी का मजमुए-कलाम-मुजको महसूस कर के देख की सारी गजले प्यारी और दिल को छू लेने वाली है ! ख़ुशी की बात ए है की सुमन अग्रवाल जैसे फ़ितरी और खुशफ़िक्र शायर की मादरी जुबान उर्दू नहीं है, वे उर्दू मै अच्छी शायरी कर रहे है जो उनकी उर्दू अदब से दिलचस्पी का सबूत है ! सुमन साहब की शायरी, सफासत, सादगी, रवानी और फ्सह्तरंगी का बेहतरीन नमूना है ! इस कामयाबी के लिये शायर मुबारकबाद के मुस्ताक हैं। '

          सुमन साहब कि गज़लें पढ़ कर महसूस किया कि सुमन साहब की ग़ज़लों में रवायत की मिठास और नये-पन की चुभन का अहसास इस दर्ज़ा है कि शे'र एक दम नश्तर की तरह सीने में उतर जाते है। सुमन साहब के शे'रों में हालात की गर्मी,ख़यालात की नर्मी और ज़ज्बात की मीठी चुभन का अहसास यकबयक अपने आप झलकने लगता है।

कई हालात के ज्वालामुखी हैं मेरे सीने में
बला की आग से चट्टान कब पानी नहीं होती

जहां पर लहर उठती हैं वहीं गिरदाब होते हैं
अगर चुपचाप हो दरिया तो तुगयानी नहीं होती हैं

          आज के माहौल में स्वार्थ,दोगलापन और मतलब परस्ती पहले से कुछ ज़्यादा है, मौसमों के मिजाज़ भी बदले बदले से है और वातावरण भी काफी नागवार सा होता जा रहा है-ऐसे मुकाम पर शायर की कलम चुप कैसे रह सकती है। टीस भरे अंदाज़ में दुनिया के तजुर्बात और हवादिस को और मजरुह मंज़रो को यूँ पेश किया-

मैं अपने आपसे ख़ुद ही छिपा रहा लेकिन
मेरा वजूद बराबर मेरी तलाश में है
* * *
शराफ़त बाल खोले शहर में अक्सर भटकती है,
हमारे गाँव में तहज़ीब चुटिया गूँथ लेती है।

          शे'रों में नयापन यकीनन इस नए दौर की देन है फिर भी सुमन साहब ने हस्बे ज़रूरत नये ख्यालात, नये ज़ज्बात और नई परवाज़ को रवायत के सांचे से गुजार कर एक नई तकमील को जन्म दिया है। शायरी खूंनेदिल और गुलकारीयों का दूसरा नाम है। किताब में जगह जगह आपको गुलकारी का अहसास तो होगा ही साथ साथ जुबान का मज़ा भी महसूस करने पर मजबूर रहेंगे।

बुढ़ापे में अभी तक भी छिपा मेरा वही बचपन
कहीं से भी मेरे टूटे खिलौने ढूंढ लाता है
* * *
मेरी दो पोतियों में, मेरा बचपन
मेरे कांधे पे चढ़कर, खेलता है
* * *
          ग़ज़ल चाहे किसी भी भाषा में कही जाये, ग़ज़ल ही रहेगी। ग़ज़ल के शेर की दो पंक्तियाँ दोहों की तरह से स्वतंत्र विचार प्रस्तुत करती हैं। सुमन साहब की ग़ज़लों के हर शे'र में यक़ीनन वही ख़ासियत दिखलाय पड़ती है।जैसे हर शे'र का लफ्ज़ कुछ कह रहा हो, जैसे वह मस्ती में कूछ गुनगुना रहा हो या शे'र ताज़ा फूलों की तरह खुशबू बिखेर रहा हो। एसा लगता है कि किताब का हर शे'र कह रहा हो, मुझ को महसूस कर के देख

मेरी तस्वीर को तुम कल से इस कमरे में मत रखना,
मैं यूं लटका हुआ दीवार पर अच्छा नहीं लगता।

हुनर में बदख्याली, बददमागी, बदजुबानी हो,
हुनर कैसा भी हो, ऐसा हुनर अच्छा नहीं लगता।
     उर्दू के एक और मशहूर शायर मुहतरम मुनव्वर राणा साहब किताब में लिखते है की -
     ' ग़ज़ल संग्रह " मुझ को महसूस कर के देख " के सफहात पर सुमन साहब के शे'र नहीं है, उनका तजुर्बा है।उनकी आप बीती है हो जग बीती का दर्द छुपाये हुए है। शायर की आँख,दुनिया का सबसे पुराना कैमरा है। शायर का दिमाग भगवान का बनाया हुआ Computer है। शायर का दिल, दुनिया का सबसे पुराना आबाद इलाका है। एन तीनों Software की मदद से देखे हुए ख्वाब को शायरी कहते है। '
ज़ियादा बहस दीनो धर्म की अच्छी नहीं होती,
 जरा सी बात भी लोगो में झगड़ा डाल देती है 
* * * 
फूंकनी पर है मेरे माँ के लबों की गरमी
घर का चूल्हा इसी गर्मी से सुलगता देखा
* * *
तुम्हारे वास्ते, मुल्के-अदम से आया हूँ
जहाँ से लौट के आना, कोई मज़ाक नही
* * *
कहां पर शौक था मुझको अज़ीज़ों, ख़ुदनुमाई का
मैं अपने आपसे अक्सर, तमाशा हो सा जाता हूँ
* * *
हम इसलिए भी न कोई, ख़ुदा तराश सके
तमाम शहर के पत्थर थे, पत्थरों की तरह
* * *
जो दिल से फूटके निकला था चीख़ की मानिंद
वो मेरे दर्दे मुहब्बत  का, एक नगमा था 
* * *
मुझको महसूस करके देख ज़रा
मैं हवा हूँ कहां नहीं हूँ मैं 
* * *
कुछ तो होते है मुहब्बत में जुनूं के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते है
* * *
          किताब पाने के लिए पता है-
प्रकाशक : सूर्यप्रभा प्रकाशन 
2 /9 , अंसारी रोड, दरियागंज 
नई दिल्ली- 110 002 ( india )

          जाते जाते सुमन जी की एक ग़ज़ल - 

आग से दूर, समंदर में जो घर रखते हैं
वो नजर वाले, हर इक शय पे नज़र रखते हैं

इस तरह मरना यक़ीनन, कोई आसन नहीं 
मरने वाले भी तो, जीने का हुनर रखते हैं

राहे मुश्किल के इरादों का, कोई खौफ नहीं
हौसले वाले अजब अज्मे-सफर रखते है

अपने बारे में हमें कोई ख़बर हो कि न हो
हम मगर सारे जमाने की रखते हैं

अपनी हस्ती पे नहीं जिनको भरोसा ए 'सुमन '
वक़्त के पैरों में, अक्सर वही सर रखते हैं
* * *
          आप सभी से माफी चाहूंगा की ईस पोस्ट में बहोत गलतीयां रही है....क्यु की मेरे गांव में पिछले १० दिन में एक ही परीवार के ७ लोगो की " कोंगो " नामके वाईरस से मोत हुई है....८ लोग अस्पताल में भरती है और सारे ईलाके मे अफरा तफरी मची है फिलहाल स्थिती काबू मे आ गई है लिकीन मैं जा रहा हूं समाज सेवा में ..और किसी की पोस्ट ना पढ पाया , कोमेन्ट न दे पाया तो माफी ....तो पोस्ट जैसी है वैसी पेश है ....

Saturday 6 July 2013

हुमैरा राहत की ग़ज़लें

हुमैरा राहत 




फ़साना अब कोई अंजाम पाना चाहता है
तअल्लुक टूटने को इक बहाना चाहता है

जहाँ इक शख्स भी मिलता नहीं है चाहने से
वहाँ ये दिल हथेली पर ज़माना चाहता है

मुझे समजा रही है आँख की तहरीर उस की
वो आधे रास्ते से लौट जाना चाहता है

ये लाज़िम है कि आँखे दान कर दे इश्क को वो
जो अपने ख़्वाब की ताबीर पाना चाहता है

बहुत उकता गया है बे-सुकूनी से वो अपनी
समंदर झील के नजदीक आना चाहता है

वो मुझ को आजमाता ही रहा है जिंदगी भर
मगर ये दिल अब उस को आज़माना चाहता है

उसे भी ज़िन्दगी करनी पड़ेगी 'मीर' जेसी
सुखन से गर कोई रिश्ता निभाना चाहता है
* * *
वक़्त ऐसा कोई तुझ पर आए
ख़ुश्क आँखों में समंदर आए

मेरे आँगन में नहीं थी बेरी
फिर भी हर सम्त से पथ्थर आए

रास्ता देख न गोरी उसका
कब कोई शहर में जा कर आए

ज़िक्र सुनती हूँ उजाले का बहुत
उस से कहना कि मिरे घर आए

नाम ले जब भी वफ़ा का कोई
जाने क्यूँ आँख मिरी भर आए
* * * 
हर एक ख़्वाब की ताबीर थोड़ी होती है
मोहब्बतों की ये तक़दीर थोड़ी होती है

कभी कभी तो जुदा बे-सबब भी होते है

सदा ज़माने की तकसीर थोड़ी होती है

पलक पे ठहरे हुए अश्क से कहा मै ने

हर एक दर्द की तशहीर थोड़ी होती है

सफ़र ये करते है इक दिल से दुसरे दिल तक

दुखों के पाँव में ज़ंजीर थोड़ी होती है

दुआ को हाथ उठाओ तो ध्यान में रखना 

हर एक लफ़्ज़ में तासीर थोड़ी होती है
* * *
किसी भी राएगानी से बड़ा है
ये दुःख तो ज़िंदगानी से बड़ा है

न हम से इश्क़ का मफ़हूम पूछो
ये लफ़्ज़ अपने मआनी से बड़ा है

हमारी आँख का ये एक आँसू
तुम्हारी राजधानी से बड़ा है

गुज़र जायेगी सारी रात इस में
मिरा कीस्सा कहानी से बड़ा है

तिरा ख़ामोश सा इज़हार 'राहत'
किसी की लन-तरानी से बड़ा है

- हुमैरा राहत 

Sunday 30 June 2013

वज़ीर आग़ा की ग़ज़लें


वज़ीर आग़ा 


लुटा कर हमने पत्तों के ख़ज़ाने
हवाओं से सुने क़िस्से पुराने

खिलौने बर्फ़ के क्यूं बन गये हैं
तुम्हारी आंख में अश्कों के दाने

चलो अच्छा हुआ बादल तो बरसा
जलाया था बहुत उस बेवफ़ा ने

ये मेरी सोचती आँखे कि जिनमे
गुज़रते ही नहीं गुज़रे ज़माने

बिगड़ना एक पल में उसकी आदत
लगीं सदियां हमें जिसको मनाने

हवा के साथ निकलूंगा सफ़र को
जो दी मुहलत मुझे मेरे ख़ुदा ने

सरे-मिज़गा वो देखो जल उठे हैं
दिये जितने बुझाये थे हवा ने 

- वज़ीर आग़ा 


बारिश हुई तो धुल के सबुकसार हो गये
आंधी  चली  तो रेत की दीवार हो गये

रहवारे-शब के साथ चले तो पियादा-पा

वो लोग ख़ुद  भी सूरते-रहवार हो गये

सोचा ये था कि हम भी बनाएंगे उसका नक़्श

देखा उसे तो नक़्श-ब-दीवार हो गये

क़दमों के सैले-तुन्द से अब रास्ता बनाओ

नक्शों के सब रिवाज तो बेकार हो गये

लाज़िम नहीं कि तुमसे ही पहुंचे हमें गज़न्द

ख़ुद हम भी अपने दर-पये-आज़ार हो गये

फूटी सहर तो छींटे उड़े दूर-दूर तक

चेहरे तमाम शहर के गुलनार हो गये

- वज़ीर आग़ा 


सावन का महीना हो

हर बूंद नगीना हो

क़ूफ़ा हो ज़बां उसकी

दिल मेरा मदीना हो

आवाज़ समंदर हो

और लफ़्ज़ सफ़ीना हो

मौजों के थपेड़े हों

पत्थर मिरा सीना हो

ख़्वाबों में फ़क़त आना

क्यूं उसका करीना हो

आते हो नज़र सब को

कहते हो, दफ़ीना हो

- वज़ीर आग़ा 

Sunday 23 June 2013

किताबें बोलती है - 4


मिज़ाज़ कैसा है : अनवारे इस्लाम


बात करती हुई ग़ज़लों की किताब 


सूर तुलसी हों, मीरो ग़ालिब हों
सब मेरा खानदान है बाबा 
* * *
आज मैंने मना लिया उसको
मान जाएगा अब खुदा मेरा 
* * *
जो मस्जिद जा रहे है उनसे कह दो
कोई बच्चा अभी तक रो रहा है 

कोई खिड़की नहा गई होगी,
धूप कमरे में आ गई होगी।

जब वो आँगन में आ गई होगी,
चाँदनी तो लजा गई होगी।

मेरे हिस्से की नींद ग़ायब है,
उसकी नींदों में आ गई होगी।

शाम चहरा बिगाड़ बैठी है,
राह में धूप खा गई होगी।

ज़ख्म ख़ुद ही कुरेदता है वो,
लज़्ज़ते दर्द भा गई होगी।
* * *
          मोहतरम अनवारे इस्लाम साहब से कभी मिला नहीं हूँ पर फोन पर अकसर बातें होती है। पहेली बार मिलाने का , बात कराने का श्रेय जाता है असलम मीर को। फिर गूगल से मिले नीरज जी, और पढली साहब की किताबों की दुनिया फिर तो मेने भी ब्लॉग बनाया। फिर अनवारे इस्लाम साहब से बात की और किताब मांगली या यु कहो परेशान कर के ली। 
          शायर होना बहोत बड़ी बात है पर उससे भी बड़ी बात है एक बहोत बड़ा इन्सान होना।  मोहतरम अनवारे इस्लाम साहब वो शख्सियत है की आप से जो एक बार बात करता है साहब का हो जाता है। थोड़े दिन गुजरे नहीं की फोन आया नहीं। हिन्दी-उर्दू का द्वैमासिक सुखनवर सालो से चला रहे है। ऐ बहोत बड़ी सिध्धि है।

ऐसा हो कोई काम के पहचान बन सके
दुनिया की दास्ताँ से हटाकर रखे जिसे 
* * *
हम फ़रिश्ते नहीं है इन्सां हैं
रोज़ जीते है रोज़ मरते हैं 
* * *
          मेरा प्रयास समीक्षा नहीं है क्यूं की में न तो ईतना ग़ज़ल के बहर के बारे में जानता हूँ न वज़न के बारे में और न तो शाइरी के शिल्प और अरुज़े फ़िक्रो-फ़न के बारे में। मैं तो सिर्फ ग़ज़ल को महसूस करता हूँ। तो पेश है किताब के कुछ अंश।
          मोहतरम अनवारे इस्लाम साहब ने सामाजिक एकाकीपन, माहौल का दबाव और असुरक्षा को देखा और महसूस किया है तभी वो लिखते है -

लोग ऐसी मिसाल देते हैं,
नेकी दरया में डाल देते हैं।

राम बन जायेगा किसी दिन तू,

तुझको घर से निकाल  देते हैं।

आ करें हार-जीत को आसाँ,

एक सिक्का उछाल देते हैं।

घर जो लौटूँ तो फिर सवाल उसके,

और उल्जन में डाल देते हैं।

कोई घटना हो मीडिया कर्मी,

सारी ख़बरे उबाल देते हैं।

कोई उत्तर नहीं मगर चहरे,

कितने सारे सवाल देते हैं।
          

          मोहतरम अनवारे इस्लाम साहबने 'इसरो' भारत शासन और म.प्र. शासन के लिए धारावाहक एवं टेली फ़िल्में भी लिखी है,बाल साहित्य पर अनेकों तथा साक्षरता साहित्य पर 65 पुस्तकें प्रकाशित हैं। और ए भी बता दूँ कि उनकी अनुवादित पुस्तकों की संख्या भी 40 के लगभग है। 
          अनवारे इस्लाम साहब सम्पादक, पत्रकार और सामाजिक विचारधारा से जुड़े है और इसी लिए उनकी ग़ज़लों में ए प्रभाव साफ दिखाय देता है -

यूं तो होने को क्या नहीं होता
तुमसे मेरा भला नहीं होता 

सारा झगड़ा फ़क़त अना का है,
वर्ना कुछ मसअला नहीं होता 

भाई, भाई का साथ देता है
और कोई सगा नहीं होता 

सुहबतों से मिजाज़ बनता है
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता

कौन करता है फ़ैसले मेरे
मुझको कुछ भी पता नहीं होता

खा न जाना फ़रेब चहरों से
इनपे सब कुछ लिखा नहीं होता 

            सीधी-सादी और सरल भाषा में अनवारे इस्लाम साहब अपनी बात कहेते है और साथ में मीर और निदा की  तरह ख़याल  पर शिल्प  को हावी  न होने देने के हामी है। उनकी गज़लें बयान और कथ्य की प्रगाढ़ता पर अधिक केन्द्रित है और शब्दों की कारीगरी में उनकी अधिक रूचि नहीं हैं।

नहीं आए हैं इसमें दाग लेकिन
मिरी चादर पुरानी हो रही है 
* * *
सच को छुपा के तूने किसी को बचा लिया
तेरा ये जूठ बोलना अच्छा लगा मुझे
* * *
याद रखते जो तुझको ख़ुशियों में
ज़िन्दगी यूँ दुखी नहीं होती
* * *
इसको तूफ़ान ही सँभालेंगे
नाव तो छोड़ दी है पानी में
* * *
काम से फुर्सत मिली न उम्र भर
और नहीं मालूम क्या करता रहा
* * *
उसकी आँखों में आ गए आँसू
मैंने पूछा मिज़ाज़ कैसा है
* * *
नये मौसमों की ये सौगात होंगे
मिलें ज़ख्म जो भी मुहब्बत से रखना

          इस किताब से कौन सी गज़ल पेश करू !!!कौन सा शेर !!!! पूरी किताब लाज़वाब है।

किताबें तुम्हारी महकती रहेंगी
हमारे ख़तों को हिफ़ाज़त से रखना
* * *
मैं लफ़्ज़ों में ख़ुद को समेटूँ तो कैसे
वो सुनना मिरी दास्ताँ चाहते हैं
* * *
जाने कितना रुलाएँगी ग़ज़लें मिरी
जाने किस-किस की पल्कें भिगो जाउँगा


          मिज़ाज़ कैसा है के शेर सिर्फ शेर नहीं है यह एक दस्तावेज भी है। अगर आप और हम इसकी तफसील में उतरना चाहते है तो मुहतरम अनवारे इस्लाम की तखलीक 'मिज़ाज़ कैसा है ' से गुजर जाइये-इस किताब को पढ़ते वक़्त हम कभी एक सहरा से गुजतें है जहाँ बिखरी उम्मीदों की रेत चमकती है। एक वीराने से गुजर जायेंगे जहाँ ख़ुलूस की खुश्बू सिर्फ खुद के ज़ज्बे के सिवा कहीं और से नहीं हासिल होती और आप बिलाशक़ एक मक्तल से गुज़र जायेंगे। उम्मीदों के बंधे हाथ बेहिसी की सूली पर वक़्त के हाथों अपना सर कलम होने का इंतजार कर रहे है।शाईर ने अपनी ज़हानत और शाईस्तगी पूरे सफ़र के दौरान बरकरार रखी है।

तल्ख गर ज़िन्दगी नहीं होती 
शाईरी, शाईरी नहीं होती 

हम न तुझको तलाश कर पाते
हाँ अगर बेख़ुदी नहीं होती

हमने केवल खुदा को पूजा है 
गैर की बन्दगी नहीं होती 

मुस्कुराके जवाब दे देते 
मुझको शर्मिंन्दगी नहीं होती 


          अनवारे इस्लाम साहब ने अपने कुछ पसंदीदा अल्फाज़ से कमाल के अशआर तख्लिक़ किये है। मिसाल के तौर पर उडान,अँधेरा,उजाला,कश्ती,परिन्दा आदी ............ हम चूनते है "घर"-

है मुश्किल पिता जी के घर को बचाना
मिरे भाई अपना मकाँ चाहते है
* * *
घर में तो मिरे कोई सामान नहीं है
ग़ालिब की ग़ज़ल मीर का दीवान नहीं है
* * * 
बारिशें पत्थरों की हम पर थीं
लोग महफ़ूज़ कांच-घर में थे
* * *
एक घर था बड़ा सा यहाँ पर कभी
छोटे-छोटे कई इसमें घर हो गए
* * *
बस ये उम्मीद लेकर गुजर जाएँगे
लौटकर हम कभी अपने घर जाएँगे
* * *
घर में रख दे तमाम नैतिकता
जैसा करते है लोग वैसा कर
* * *
बैठ पाया नहीं कभी घर में
कट गई उम्र आने-जाने में
* * *
लेके उम्मीदे निकलता हूँ मैं क्या-क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ
* * *
जाने क्या-क्या जमा किया घर में
और समझता रहा ये मेरा है
* * *
कई कमरे हैं उसके पास लेकिन
वो घर में एक कोना चाहता है
* * *
आँखों में मेरी झांक के अंदर भी देख ले
देखा है सिर्फ मुझको मिरा घर भी देख ले
* * *
अजनबी हो गए दरो-दीवार
घर के अन्दर भी घर नहीं लगता
* * *
क्या-क्या न एक झोंके से पल में बिखर गया
मैं मुत्मईन था खूब के सब कुछ तो घर में है
* * *
वो आए मिरे घर में हैं, क्या पूछना मेरा
मैं भी बहुत अच्छा मिरा महमान भी अच्छा 

          इस किताब को पाना बहुत आसान है-
प्रकाशक : आलेख प्रकाशन 
वी-8, नवीन शाहदरा
दिल्ली-110032

          अनवारे इस्लाम साहब से फेसबुक पर मिलने का लिंक 
मोबाइल : 09893663536

            अनवारे इस्लाम साहब का इ-मेल पता 

          सुखनवर के लिए पत्र व्यवहार -
सी-16, सम्राट कोलोनी अशोक गार्डन, भोपाल-462023
मोबाइल : 09893663536
ई-मेल : sukhanwar12@gmail.com

          मेरी पोस्ट से कहीं बेहतर पोस्ट पढने के लिए और किताब के बारे में ज्यादा जानने के लिए निचे दी गयी लिंक पर क्लिक करे -

जाते जाते अनवारे इस्लाम साहब की कुछ गज़लें -

हवा के साथ चरागों ने दोस्ती कर ली
अजीब लोग हैं घबरा के ख़ुदकुशी कर ली

बहुत फ़रेब है रिश्तों में चाँद सूरज के
उज़ाले माँग के लोगो ने रोशनी कर ली

दिलों के मामलें कैसे दिमाग समझेंगे
इसी गुमान में किस-किस से दुश्मनी कर ली

गुज़ार दी शबे तारीक गीत गा-गाकर
दिलों में दर्द लिए हमने ज़िन्दगी कर ली

चलो के टूट गया तेज़ धूप का जादू
लहू बखेर के सूरज ने ख़ुदकुशी कर ली
* * *
झूठ बोला है किस सफाई से
ऐसी उम्मीद थी न भाई से

इतना कहते हुए झिझक कैसी
काम बिगड़े भी है भलाई से

बात घर की है घर में रहने दे
फ़ायदा क्या है जग हंसाई से

बरकतें ही न घर की उड़ जाएँ
बचके रहिए ग़लत कमाई से

मोड़ आने लगा कहानी में
रोक दे दास्ताँ सफ़ाई से

सूद में क़िस्त जाती रहती है
अस्ल चुकता नहीं अदाई से
* * *
सगे भाई हैं उनमें प्यार भी है
मगर आँगन में इक दीवार भी है 

बहुत मासूम है चहरा किसी का
नहीं लगता के दुनियादार भी है

बहुत सी खूबियाँ है उसमें लेकिन
कमी बस ये के वो खुद्दार भी है

वो छुप-छुपकर जो साजिश कर रहा है
वो मेरा ख़ास रिश्तेदार भी है

चलो उस पेड़ को पानी पिला दें
ज़ईफ़ुल-उम्र सायादार भी है

वो करता है बहुत से कम फिर भी
हक़ीक़त ये के वो बेकार भी है

( मुझसे कोइ गलती रही हो तो माफी चाहता हूँ  )