Tuesday 23 April 2013

किताबें बोलती है - 2

       यादों का सफ़र : रेखा अग्रवाल


भीड  में खो  गई मेरी पहचान,
मैं मिलूँ तो मेरा पता लिखना! 

          मुझे जनाब अनवारे इस्लाम साहब ने कूछ ग़ज़ल की किताबे भेजी थी ! जिसमे इक किताब थी शायरा रेखा अग्रवाल की किताब ' यादों का सफ़र ' ! आज इसी किताब का हम जिक्र करेंगे !


       जमाना बदला तो महिलाए अपने हक़ की लड़ाई जीतने में भी कामयाब हुई और दूसरी तरफ़ ग़ज़ल भी अपने दकयानुसी अर्थ की ज़ंजीरो से आज़ाद हो गइ ! ग़ज़ल आज सिर्फ़ महबूब से बाते करने तक महदूद नही है, बल्कि टूटते-बिखरते रिश्तों का दर्द, ग़रीबी और इस्तहसाल की चुभन, तमाम सियासी-समाजी और साईंसी, इक्तिसादी और आदमी से जुड़े हर मसअले के बेबाकी से इज्हार का वसीला बन गई है ! परवीन शाकिर की ग़ज़ल की बोल्डनेस ने कितनी ही शाइरात को अपना वजूद मनवाने की हिम्मत बख्शी ! इन्हीं में एक है रेखा अग्रवाल !

       रेखा जी के शेर पढ़कर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा हो, परखा हो, समजा हो ! रेखा जी के कितने ही शेरो पर पूरी-पूरी क़िताब लिखी जा सकती है ! रिश्तों की 'नज़ाकत' और 'ऊँच-नीच' की रेखा जी को ख़ूब समज है, तभी तो वो कहेती ही:-

मैं रिश्तों की हकीक़त जानती हूँ,
हर एक रिश्ता मेरा परखा हुआ है !
* * *
बाहर-बाहर हँसने वाला,
अंदर-अंदर टूट चूका है !
* * *
घर के आईने के अंदर 
घर के बाहर का चेहरा है !
* * *
खिड़की दरवाजों से पर्दे लिपट गये,
जब हमसाये से हमसाया रूठ गया !

          मुझे उम्मीद है कि बाक़ी और सैंकड़ो शेरो की तरह उनके ये अशआर, दुनिया के किसी भी शायर को रेखा जी की शायरी कि ऊंचाईयों के बारे में सोचने पर मजबूर कर देंगे :-

दर्द है इतना आशना मुझसे !
मिलने आता है बारहा मुझसे !

एक सदी की मिली सज़ा मुजको,
एक पल की हुई ख़ता मुझसे !

मै अंधेरों के हक में बोली थी,
रौशनी है ख़फ़ा-ख़फ़ा मुझसे !

मैंने लम्हों की आस क्या छोड़ी,
वक़्त को है बहुत गिला मुझसे !

          अनेकानेक विषयों पर कहे गये बहुरंगी अशआर के साथ कुछ ऐसे अलग से अपनी और ध्यान खींचते है जिनमें रंगे तस्वूफ़ है, एक पुकार है, उस दुनिया की जो हमारी रोजमर्रा की दुनिया से अलग है,शायद ए पुकार दूर है या शायद हमारे अंदर छूपी है ! हरीयाणा की यह बेटी जब शेर कहेती है तो शेर मै तगज्जुल, फ़िक्र की गहराई, गिराई (पकड़ ) तो होती ही है, शेर अपने क़ारी और सामयीन ( पाठक-श्रोता ) पर बिजली की रफ़्तार से उसकी रूह में उतर कर वही कैफ़ियत पैदा कर देता है जो शाइरा के ज़हनों-दिल मे नूर बनकर जल्वागर होता है ! उनके अशआर  :-

हम समज पाए कहाँ इस जिंदगी का फल्सफ़ा,
आईना तकते रहे नादान बच्चों की तरह !
* * * 
नज़रो में गहराई हो तो,
लगता है हर मंजर अच्छा !
* * *
सूरत से क्या लेना-देना 
सीरत का हो जेवर अच्छा !
* * *
पसरा अगर अंधेरा देखें आप पड़ोसी के घर में,
ऐसी दिवाली पर यारो, दीप जलाना ठीक नहीं !
* * *
छोटी छोटी ज़रूरतें मेरी 
खा रही है बड़े इरादों को !
* * *
जो मेरी आँख से बड़े निकले,
क्या कहा जाए ऐसे सपनों को!
* * * 
सूरज लहूलुहान समंदर में गिर पड़ा 
दिन का गुरुर टूट गया रात हो गई !
* * *
वो जो ओरों के काम आता हो,
ऐसे इन्सान को ख़ुदा लिखना !
* * *
अपने अंदर ही जाकना बेहतर !
क्यूं किसी को भला बुरा लिखना !!
* * *
अपनी हर इक मेंह्बानी का वो रखते हैं हिसाब,
अब हमारे मेह्बा कितने सयाने हो गए !
* * *
वो सौंपकर गया है मुजे आंसुओं के फूल,
ठंडा सा उसकी याद का जोंका मुझे भी दे !  

          रेखाजी ने अपने कुछ पसंदीदा अल्फ़ाज़ से कमाल के अशआर तख्लिक़ किये हैं ! मिसाल के तौर पर "आईना" उनके एहसासात की ग़म्माजी का जबर्दस्त आइनादार है ! देखिये:_

बुज़ुर्गो जाकना मत आईने में,
शरारत से लड़कपन बोलता है !
* * * 
बदल ले लाख तू चहरे को अपने,
हक़ीकत बनके दर्पन बोलता है !
* * *
आईना देख रहे हो तो सँवारो ख़ुद को,
वर्ना अपनी ही छवि देखके डर जाओगे !
* * *
आइना सच बताएगा हर हाल में,
खुलके सच्चाई का सामना कीजिए !
* * *
आईना शाहिद तो था मेरा,मगर चुप ही रहा,
मेरी सूरत ख़ूद मेरी सूरत से धोखा खा गई !


          अब में रेखाजी के वो चन्द अशआर पेश करना चाहता हूँ जिनमे उनकी शायराना शख्सियत बड़ी वजाहत के साथ उभरकर सामने आती है और इस बात का स्पस्ट संकेत देती है कि शायरों और शायरात की भीड़ में उनकी शायराना अज़्मत दूर से पहचानी जाएगी:


मेरी तन्हाई रोना चाहती है,
तेरे कमरे का कोना चाहती है 
* * *
इब्तिदा, इन्तहा नही होती,
इब्तिदा को न इन्तहा लिखना !
* * *
इसलिए तो एकमत होते नही दो आदमी,
आदमी हर दम बदलता है विचारों की तरह !
* * *
 धूप अपनी कोशिशें नाक़ाम होती  देखकर,
मेरे पैरो के तले ख़ूद छाँव बनकर आ गई !
* * *
आ रही है हर तरफ़ से गुनगुनाहट की सदा,
क्या कोई बदली तेरी पाज़ेब से टकरा गई !

          रेखाजी का जन्म विशाखापटटनम में हुवा है, दिल्ली में पली-बढ़ी,शादी भिवानी ( हरियाणा ) में मशहूर शायर सुमन अग्रवाल से हुवी है ! रेखा जी का बेटा गीतेश और बहूरानी अंजली भी कविता कहते है ! जेठ डॉ. मुकेश कुमार भी जाने माने शायर है !

          तो इस किताब में सिर्फ गज़ले ही नही है बहतरीन नज्मे भी है ! मुझे तो ये किताब मेरे पसंदीदा शायर अनवारे इस्लाम साहब ने भेजी है ! अनवारे इस्लाम का फ़ोन. 0 98 93 66 35 36  है ! आप भी वही तरीका अपना सकते है ! फिर भी किताब में जो एड्रेस दिया है आपके लिए :-

मूल्य - 250 
प्रकाशक 
पहले पहल प्रकाशन 
25 - ए, एम. पी. नगर, भोपाल 
फ़ोन.  : 94250 11789
और 
मुद्रक 
प्रियंका ऑफसेट 
25  - ए, एम. पी. नगर, भोपाल 
फ़ोन.  : 0755 - 2555789 

          चलते-चलते रेखाजी की कूछ ग़ज़लों के साथ अलविदा :-

क्या कहें किन फ़ासलों में खो गए 
चलते-चलते रास्तों में खो गए 

हाशिये पर आ गया था अपना नाम 
और फिर हम हाशियों में खो गए 

एक काशाना किया तामीर बस 
कितने पत्थर, पत्थरों में खो गए 

दोस्तों कुछ नौजवाँ एस दौर के 
हैफ ! सारे बोतलों में खो गए 

कट गया रिश्तों का जंगल आज यूँ 
मेरे अपने दूसरों में खो गए 

किन ग़लत हालात से गुजरें हैं लोग 
हौसले भी हौसलों में खो गए

जिन से ' रेखा ' कुछ मेरा मतलब न था 
प्यार के पल तज्रबों में खो गए  

* * *

मेरे हाल पर रहम खाते हुए,
वो आये तो हैं मुस्कुराते हुए !

जहां दिल को जाना था ए साथिया,
वहीं ले गया मुजको जाते हुए !

ये तूफान कितना मददगार है,
चला है सफीना बढाते हुए !

मुझे याद फिर बिजलियां आ गइ,
नया आशियाना बनाते हुए !

जमाने की क्यूं अक्ल मारी गइ,
मेरे दिल का सिक्का भुनाते हुए !

ये हालात ने क्या असर कर दिया,
जो मैं रो पडी मुस्कुराते हुए !

ए 'रेखा' गमों कि मुहब्बत तो देख,
करीब आ गए दूर जाते हुए !

* * *
कोइ यह बात भी पूछे उसी से,
अंधेरा क्यूं खफा है रोशनी से !

तुम्हारे अपने ही कब काम आए,
तुम्हें उम्मीद तो थी हर किसी से !

अब येसे दर्द को क्या दर्द समझें,
जो सीने में दबा है खामोशी से !

नहीं भाती है दिल को कोइ सूरत,
हमें तो वास्ता है आप ही से !

तुम्हें पूजा, तुम्हें चाहा है मैने,
बडी तस्कीन है इस बन्दगी से !

किसी के लौट आने की खबर है,
बहुत बेचैन हूं मैं रात ही से !

बहुत खुशहाल हूं मैं आज 'रेखा',
कोइ शिकवा नहीं है जिन्दगी से !
~ _ ~

( कोइ गलती रही हो तो, माफि चाहता हूं )

Sunday 14 April 2013

किताबें बोलती है - 1

एक ख़ुशबू टहलती रही : मोनिका हठीला

              मै और मेरे दोस्त  ' जोगी जसदनवाला ' इस साल की शरूआत में भूज दोस्त अजीत परमार ' आतूर ' से मिलने गये थे ! दुसरे दिन आतूर के घर शाम को भुज के गुजराती शायरो की महेफ़ील सजी,गुजराती शायरों के बीच एक बिलकुल अलग अंदाज़ से एक कव्यत्री ने तरन्नुम में अपने गीत,गज़ल गाना शरू किया और छा गयी ! ये कवयत्री थी हिन्दी काव्य मंच की मशहूर कवयत्री 'मोनिका हठीला' !लोट्ते वक़्त आतुर से कूछ किताबें ली कूछ किताबें दी। उन किताबों में एक किताब जो शामिल थी वो थी हिन्दी की मशहूर कवयत्री  ' मोनिका हठीला ' का काव्य संग्रह '' एक ख़ुशबू टहलती रही '' !! 
  
 एक ख़ुशबू टहलती रही रात  भर 
जूल्फ़ खूलकर मचलती रही रात  भर 
गीत ग़ज़लों ने दिल को सहारा दिया 
याद  करवट बदलती रही रात  भर 
              इस काव्य संग्रह का नाम एक ख़ुशबू टहलती रही रखे जाने के पीछे का एक कारण ये भी है कि ये मोनिका का एक प्रसिध्द मुक्तक भी  है !और हिंदी गीतों के पुरोधा कवि दादा गोपाल दस नीरज ने इसे मुक्तक सुनकर मोनिका के सर पर हाथ रख कर अपना स्नेहिल आशिष दिया था !ये सारी बाते आसमान को छूने जैसी ही तो है ! 
                    तो आतुर के कारण मुझे मोनिका जी से मिलने का मोका मिला परन्तु एक कवि या कवयत्री की पहचान तो उनके शब्दों से ही होती है! भावनाए नई नही होती आदिकाल से मानव मन की संवेदनाये और भावनाए बदली नही है और न बदलेगी ! बदलता है तो केवल उन्हें शब्दों में पिरोने का कौशल, लक्षना और व्यंजना का श्रुंगार और अपनी  बात को नये ढंग से कहने की कला ! मोनिका हठीला की रचनाओं में यह कौशल भली भाँति उभर कर आया है!सहज सीधे सादे शब्दों में बिना किसी आडम्बर के अपनी बात कह पाने का जो हूनर उनकी रचनाओ में दिखाय  देता है वहाँ तक पहोंचने में कड़ी साधना की जरुरत  होती है! अपने गित में लेखन का ज़िक्र  करते हुवे कहती है-
            
घिर आई, रंग भरी शाम !
एक गीत और  तेरे नाम !!

कलियों के मधुबन से गीतों के छंद चुने !
सिन्दूरी क्षितिजो से सपनों के तार बुने !

सपनों का तार तार वृन्दावन धाम !!
एक गीत और  तेरे नाम !!

खोज रही बिम्ब एक सुधियों के दर्पण में !
थिरक रहा पल-पल जो एस दिल के आँगन में !

आँगन में कर ले जो पल भर विश्राम !!
 एक गीत और  तेरे नाम !!

ढूँढ -ढूँढ कर हारी दिन तलाशते बीता !
जीवन घट बूँद-बूँद रिसते-रिसते रीता !

रीत-रीत कर राधा बन बैठी  श्याम !!
एक गीत और  तेरे नाम !!

              और तुम्हारे नाम नाम लिखते लिखते जब यह कलम अपने आसपास देखती है तो व्यवस्था की अस्तव्यस्तता और टूटते हुए सपनों के ढेरों से जुड़े हुए राजनीती से अछुती नहीं रह पाती वे एक शेर में लिखती  है -

सारे कौए ओढ के चादर आज बन गये बगुले  
अंधियारे  ने रहन रख लिया आज उजाला है. 

                मुझे मोनिका जी की और एक ग़ज़ल इस क़िताब से याद आती है! जब दिल्ली  का रेप केस जहन में आता है इस हादसे पर कई शायरो ने कविओ ने बहोत कूछ लिख्खा है पर मोनिकाजी ने जो कहा वो पिडा सिर्फ कवि की नही पर मां-बाप की है वो गज़ल उनकी आवाज़ में सुनने का अपना मजा है वो ग़ज़ल है-
उसकी मुट्ठी में जान होती है 
जिसकी बेटी जवान होती है 

हाँक दो जिस तरफ़,चली जाएँ 
बेटियाँ बेजूबान होती है 

जैसा चाहे जुका लो इनको तुम 
बेटीयां तो कमान होती है 

बेटे होते है पहाड़ के जेसे 
बेटियाँ आसमान होती है 

मोतियों सा संभाल कर रखना 
बेटीयां घर की शान होती है 

                कूल मिला कर  इस काव्य संग्रह में सब कूछ है गित,ग़ज़ल,छंद-मुक्तक,मौसम के गीत,होली गीत लेकिन मोनिका न केवल गीतों को अपने शब्दों से सजाती है बल्कि गज़ले भी वो सजाती है!छोटी बहर हो या लम्बी,मोनिका ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में बया की है!उनकी ग़ज़लों के चंद अशआर पढ़े बिना यह ज़िक्र अधूरा रह जायेगा! कूछ शेर खांस -
    
सुबह रोती मिली चाँदनी 
रात जिससे सुहानी हुई  
* * * * *
मैने जाना जबसे तुमको 
खुद से ही अंजान हो गई 
* * *
आप के हुक्म पर होंठ सी तो लिये 
गीत पायल लुटाये तो मै क्या करूं 
* * * * *
हर कोई पूछता है मुझसे उदासी का सबब 
कैसे बतलाऊ जमाने को कि क्या बात हुई 
* * * * *
इतने सारे रंगो में कोई भी नही सजता 
उन हसीन यादो के रंग इतने गहरे हैं 
* * * * *
राह कांटो भरी हैं  कुछ ग़म नहीं 
आप है हम सफ़र,और क्या चाहिए 
* * *
                       इस काव्य संग्रह के अनुक्रम में 1२ गीत, मौसम के गीत-दोहे ७, २० ग़ज़ल,होली के गीत ८ और बाकी छन्द और मुक्तक है!किताब का मूल्य है- 250 ! इस किताब को पाने का आसन तरीका अगर कोई है तो वो जरिया है अजित परमार आतुर! आतुर का मो. नं.09825236840.! क्यू की मोनिका जी आज कल भुज (गुजरात) में है ! आतुर से बात कर के इस किताब को मंगवाया जा सकता है !

                  एक और तरीका है किताब पाने का जो किताब में लिख्खा है -

मोनिका हठीला ( भोजक ) 
द्वारा श्री प्रशांत भोजक 
मकान नं बी- 164
आर. टी. ओ. रिलोकेशन साईट 
भुज,कच्छ ( गुजरात )
संपर्क : 098258 51121
और 
प्रकाशक : शिवना प्रकाशक 
पि.सी. लैब, सम्राट कोम्प्लेक्स बेसमेंट 
बस स्टेंड, सीहोर - 466001 ( म. प्र. )
  
               मोनिकाजी के बारे में बताऊ तो सीहोर म. प्र.  में जन्मी है और अपने पति प्रशांतजी के साथ भुज में है ! मोनिकाजी के पिता श्री रमेश हठीला भी जाने मने कवि है! गुरु है श्री नारायण कासट जी!आप से बीदा लेते लेते बता दु मोनिकाजी प्रसिध्ध साहित्यिक संस्था शिवना से जुड़ी हुई है और वही पर सीखी है ! और हाँ अगर आप कही मुशायरे,कवि संमेलन का आयोजन कर रहे है तो मेरी दरखास्त है आपसे जरुर मोनिकाजी को याद करना ! कुमार विश्वास के साथ भी वे अक्सर मुशायरे में दिखाय देती है ! जाते जाते उनका एक वीडियो -

मोनिका की जी काव्य संमेलन में 


( ईस पोस्ट लिखने में मुझसे कोई ग़लती हुवी हो तो आप सब की क्षमा चाहता हूँ )

Wednesday 10 April 2013

मुनव्वर राना

                          

किसी को घर मिला हिस्से  में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरी हिस्से में माँ आई
मुनव्वर राना



लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है

तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है
कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है
मसायल से घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है

बड़ा गहरा तअल्लुक़ है सियासत से तबाही का
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है.



मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है

हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है
ये हर कुत्ते आगे शाही टुकड़ा डाल देती है

कहाँ की हिजरतें कैसा सफ़र कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

हसद की आग में जलती है सारी रात वह औरत
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है



सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता

हम कि शायर हैं सियासत नहीं आती हमको
हमसे मँह देख के लहजा नहीं बदला जाता

हम फ़क़ीरों को फ़क़ीरी का नशा रहता है
वरना क्या शहर में शजरा नहीं बदला जाता

ऐसा लगता है कि वो भूल गया है हमको
अब कभी खिड़की का पर्दा नहीं बदला जाता

अब रुलाया है तो हँसने पे न मजबूर करो
रोज़ बीमार का नुस्ख़ा नहीं बदला जाता

ग़म से फ़ुर्सत ही कहाँ है कि तुझे याद करूँ
इतनी लाशें हों तो काँधा नहीं बदला जाता

उम्र इक तल्ख़ हक़ीक़त है मुनव्वरफिर भी
     जितने तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता.
           

- मुनव्वर राना

Sunday 7 April 2013

राहत इन्दौरी की गज़लें

राहत इन्दौरी

उसकी  कत्थई  आँखों  में हैं जंतर-मंतर सब
चाक़ू--वाक़ू,    छुरियाँ--वुरियाँख़ंजर--वंजर सब

जिस दिन  से  तुम  रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं
चादर--वादर, तकिया-वकिया,बिस्तर-विस्तर सब

मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है
फीके  पड़  गए  कपड़े--वपड़े,  ज़ेवर--वेवर सब

आखिर  मै  किस  दिन  डूबूँगा फ़िक्रें करते है
कश्ती-वश्ती,   दरिया-वरिया,  लंगर-वंगर  सब

डा. राहत इन्दोरी


गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है
मैं आ गया हूँ बता इन्तज़ाम क्या-क्या है

फक़ीर शाख़ कलन्दर इमाम क्या-क्या है
तुझे पता नहीं तेरा गुलाम क्या क्या है

अमीर-ए-शहर के कुछ कारोबार याद आए
मैँ रात सोच रहा था हराम क्या-क्या है
डा. राहत इन्दोरी


ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे
फरिश्ते आ के ख़्वाब मेँ हिसाब माँगने लगे

इधर किया करम किसी पे और इधर जता दिया
नमाज़ पढ़के आए और शराब माँगने लगे

सुख़नवरों ने ख़ुद बना दिया सुख़न को एक मज़ाक
ज़रा-सी दाद क्या मिली ख़िताब माँगने लगे

दिखाई जाने क्या दिया है जुगनुओं को ख़्वाब मेँ
खुली है जबसे आँख आफताब माँगने लगे

डा. राहत इन्दोरी

Thursday 4 April 2013

असलम मीर की गज़लें




 मेरे दोस्त असलम मीर की तीन बहतरीन ग़ज़ल 



ज़ात    बेरंग    तो   बेनुर   सा  लहजा   करता 
कब  तलक  तु  हि  बता  में तेरा सदमा करता 

कोइ   मिलता   जो   ख़रीदार   मुक़ाबिल  मेरे 
शौक़ से में भी दिल-ओ-जान  का सौदा करता

तुने  अच्छा  हि  किया  देके ना आने की ख़बर 
वर्ना    ताउम्र    तेरी   राह   में   देखा   करता 

जैसे करता है हर  एक  शख्स  पे ऐसे ही कभी 
अय  मेरे दोस्त  तू  ख़ुद पर भी भरोसा करता

थी  ये  दानाई   कहां  की  जो  अंधेरें  के  लीये 
ख़ुद ही घर अपना  जलाकर में उजाला करता

   सु-ए-आईना कभी  जाती जो  नज़रें  'असलम '    
जाने  क्या  क्या में  मुझे देख के सोचा करता 

- असलम मीर

 चाल  माना  की  मुखालिफ़  वो   मेरे   चलता   नहीं
ये    भी   सच  है  मात   देने  से  कभी  रुकता  नहीं

लोग   कहते   है   की  मेरी   ज़ात  हे  दरीया सिफ़त 
वाक़ई  ये  सच  हे  तो  में   किस  लिये  बहता  नहीं

बात  तन्हा  क्या  करे  वहम-ओ-गुमाँ की हम भला  
बाखुदा  अब  तो  हक़ीक़त  में  भी  कुछ  रक्खा नहीं 

ये  अलग  हे  बात  जो  आता   नहीं   तुझको  नज़र 
वर्ना   तेरे   वास्ते   दिल   में   मेरे  क्या क्या   नहीं

क़ार-ए-दरीया    की   हक़ीक़त   जान ने   के  वास्ते 
साहिलों   पर   बैठकर   हमने   कभी    देखा    नहीं 

जाबजा  सबकुछ  ही  मिल  जाता  हे   ता हद्दे-नज़र 
बस  वजूद-ए-ज़ात का नाम-ओ-निशाँ मिलता नहीं 

तज़किरा  करता हे 'असलम '  हम से  दीवानों पे वो 
जो  कभी    दीवानगी   की   राह   से   गुज़रा   नहीं
 
-असलम मीर    
     
जहाँ   देखो   वहाँ   मील   जायेगी  परछाइयाँ  अपनी
बहुत    मशहूर   हैं   इस   शेहर   में  रुस्वाइयाँ अपनी

तुम्हारी  तुम  ही  जानो एहले-दाना, ऐ  खिरद  वालो
हमे   तो   रास   आती   हैं   सदा   नादानियाँ   अपनी

दिले-नाशाद   तेरा   क्या   करे   आबाद   होकर   भी
हमेशा   याद   रहती   हैं   तुझे    बरबादियाँ    अपनी

बलन्दी  की  हकीक़त का  मज़ा  हरगिज़ न पाओगे
अगर   देखी   नहीं    हैं   आपने  नाकामियाँ   अपनी

हीसारे-दीद    से   बचना  बहुत  दुशवार  था लेकिन
खुदा  का   शुक्र   हे   महफूज़  हैं  खामोशियाँ अपनी

न  जाने  कब  मुकम्मल   देख   पायेगे   वजूदे-ज़ात
कहीं  हम   हे, कहीं पैकर, कहीं  परछाइयाँ   अपनी

सरापा    सुरते-गुलशन    सभी    से   पेश    आयेगी
नुमायाँ   हो  नहीं   सकती  कभी वीरानियाँ  अपनी

सुनेगा   और   कोई  किस तरह फरमाईये 'असलम '
कि जब तुम ही नहीं सुन पा रहे सरगोशियाँ अपनी

-असलम मीर    


Monday 4 March 2013

फ़रहत शहज़ाद

फरहत शहज़ाद की ग़ज़लें 



आँखों आँखों एक ही चहेरा
धड़कन धड़कन एक ही नाम

- फ़रहात शहज़ाद


भटका भटका फिरता हूँ 
गोया सूखा पत्ता हूँ 

साथ जमाना है लेकिन 
तनहा तनहा रहता हूँ 

धड्कन धड़कन ज़ख़्मी है 

फिर भी हसता रहेता हूँ 

जबसे तुमको देखा है

ख़ाब ही देखा करता हूँ

तुम पर हर्फ़ न आ जाये 

दीवारों से डरता हूँ 

मुझ पर तो खुल जा 'शहज़ाद'

मैं तो तेरा अपना हूँ



एक तो चेहरा ऐसा हो 
मेरे लिए जो सजता हो 

शाम ढले एक दरवाज़ा 
राह मेरी भी तकता हो 

मेरा दुःख वो समजेगा 
मेरी तरह जो तनहा हो 

एक सुहाना मुस्तकबिल 
ख़ाब सा जैसे देखा हो 

अब 'शहज़ाद' वो दीपक है 
जो तूफ़ान में जलता हो 



फ़ैसला तुमको भूल जाने का 
इक नया ख़ाब है दीवाने का 

दिल कली का लरज़ लरज़ उठा 
ज़िक्र था फिर बहार आने का

हौसला कम किसी में होता है
जीत कर ख़ुद ही हार जाने का 

जिंदगी कट गई मनाते हुए 
अब इरादा है रूठ जाने का 

आप 'शहज़ाद' की न फ़िक्र करे 
वो तो आदी है ज़ख्म खाने का 


इससे पहले के बात टल जाये
आओ एक दौर और चल जाये

आँसुओं से भरी हुई आँखें
रोशनी जिस तरह पिघल जाये

दिल वो नादान शोख़ बच्चा है
आग छूने पे जो मचल जाये

तुझको पाने की आस के फल से
ज़िंदगी की रिदा न ढल जाये

बख़्त मौसम हवा का रुख़ जाना
कौन जाने के कब बदल जाये




खा कर ज़ख़्म दुआ दी हमने
बस यूँ उम्र बिता दी हमने


रात कुछ ऐसे दिल दुखता था
जैसे आस बुझा दी हमने

सन्नाटे के शहर में तुझको
बे-आवाज़ सदा दी हमने


होश जिसे कहती है दुनिया
वो दीवार गिरा दी हमने


याद को तेरी टूट के चाहा
दिल को ख़ूब सज़ा दी हमने


'शह्ज़ाद' तुझे समझायें
क्यूँ कर उम्र गँवा दी हमने





लुत्फ़ जो उसके इंतजार में है
वो  कहाँ मौसम-ए-बहार में है

हुस्न जितना है गाहे गाहे में
कब मुलाकात-ए-बार-बार में है

जान-ओ-दील से में हारता ही रहू
गर तेरी जीत मेरी हार में है

जिंदगी भर की चाहतों का सिला
दील में पैबस्त नोक-ए-खार में है

क्या हुआ गर ख़ुशी नही बस में
मरना तो इख़्तियार में है



लमहों की जागीर लुटा कर बैठे है
हम घर की दहलीज़ पे आ कर बैठे है

लिखने को उनवान कहाँ से लाये अब
काग़ज़ से एक नाम मिटा कर बैठे है

हो पाए तो हँस कर दो पल बात करो 
हम परदेसी दूर से आ कर बैठे है

उठेंगे जब दिल तेरा भर जायेगा
ख़ुद को तेरा खेल बना कर बैठे है

जब चाहो गुल शम्मा कर देना 'शहज़ाद'
हम अंदर का दीप जला कर बैठे है




मर मर कर जीना छोड़ दिया 
लो हमने पिना छोड़ दिया 

खाबों के खयाली धागों से 
ज़ख्मों को सीना छोड़ दिया

ढलते ही शाम सुलू होना 
हमने वो करीना छोड़ दिया

तूफ़ान हमे वो रास आया
के हमने सफीना छोड़ दिया

मय क्या छोड़ी के लगता है
 जीते जी जीना छोड़ दिया

'शहज़ाद' ने खाबों में जिना
ऐ शोख़ हसीना छोड़ दिया



तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है 
मुझे तु  मेरे दुःख जैसा लगे है 

चमन सारा कहे है फूल जिसको
मेरे आँखों को तुज चेहरा लगे है

रगों में तेरी ख्वाहिश बह रही है
ज़माने को लहू दिल का लगे है

हर इक मजबूर सीने में मुझे तो
धड़कन वाला दिल अपना लगे है

सफर कैसा चुना 'शहज़ाद' तूने
हर एक मंजिल यहाँ रस्ता लगे है


* * *




ज़िंदगी को उदास कर भी गया
वो के मौसम था इक गुज़र भी गया



सारे हमदर्द बिछड़े जाते हैं
दिल को रोते ही थे जिगर भी गया



ख़ैर मंज़िल तो हमको क्या मिलती
शौक़-ए-मंज़िल में हमसफ़र भी गया


मौत से हार मान ली आख़िर
चेहरा-ए-ज़िंदगी उतर भी गया


क्या टूटा है अन्दर अन्दर, क्यू चेहरा कुम्हलाया है
तनहा तनहा रोने वालों, कौन तुम्हें याद आया 

चुपके चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने

इक तारे ने टूट के यारों, क्या उनको समजाया है ?

रंग बिरंगी इस महफ़िल में, तुम क्यूं इतने चुप चुप हो

भूल भी जाओ पागल लोगों, क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ है खून है दिल का, जो लफ्जों में बिखरा है

दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है

अब 'शेह्ज़ाद' ये जूठ न बोलो, वो इतने बेदर्द नहीं

अपनी चाहत को अभी परखो, गर इलज़ाम लगाया है 
                                 * * *

सबके दिल में रहता हूँ, पर दिल का आँगन खाली है 
खुशिया बाँट रहा हु जग में अपना दामन खाली है 

गूल रुत आयी कलियाँ चटकी पत्ती पती मुस्काई 
पर इक भंवरा ना होने से गुलशन गुलशन खाली है

दर दर की ठुकराई हुयी अई महबूबे तनहाई
आ मिल जुल कर रह ले, इसमें दिल का नशेमन खाली है

 फ़रहात शहज़ाद