Sunday 14 April 2013

किताबें बोलती है - 1

एक ख़ुशबू टहलती रही : मोनिका हठीला

              मै और मेरे दोस्त  ' जोगी जसदनवाला ' इस साल की शरूआत में भूज दोस्त अजीत परमार ' आतूर ' से मिलने गये थे ! दुसरे दिन आतूर के घर शाम को भुज के गुजराती शायरो की महेफ़ील सजी,गुजराती शायरों के बीच एक बिलकुल अलग अंदाज़ से एक कव्यत्री ने तरन्नुम में अपने गीत,गज़ल गाना शरू किया और छा गयी ! ये कवयत्री थी हिन्दी काव्य मंच की मशहूर कवयत्री 'मोनिका हठीला' !लोट्ते वक़्त आतुर से कूछ किताबें ली कूछ किताबें दी। उन किताबों में एक किताब जो शामिल थी वो थी हिन्दी की मशहूर कवयत्री  ' मोनिका हठीला ' का काव्य संग्रह '' एक ख़ुशबू टहलती रही '' !! 
  
 एक ख़ुशबू टहलती रही रात  भर 
जूल्फ़ खूलकर मचलती रही रात  भर 
गीत ग़ज़लों ने दिल को सहारा दिया 
याद  करवट बदलती रही रात  भर 
              इस काव्य संग्रह का नाम एक ख़ुशबू टहलती रही रखे जाने के पीछे का एक कारण ये भी है कि ये मोनिका का एक प्रसिध्द मुक्तक भी  है !और हिंदी गीतों के पुरोधा कवि दादा गोपाल दस नीरज ने इसे मुक्तक सुनकर मोनिका के सर पर हाथ रख कर अपना स्नेहिल आशिष दिया था !ये सारी बाते आसमान को छूने जैसी ही तो है ! 
                    तो आतुर के कारण मुझे मोनिका जी से मिलने का मोका मिला परन्तु एक कवि या कवयत्री की पहचान तो उनके शब्दों से ही होती है! भावनाए नई नही होती आदिकाल से मानव मन की संवेदनाये और भावनाए बदली नही है और न बदलेगी ! बदलता है तो केवल उन्हें शब्दों में पिरोने का कौशल, लक्षना और व्यंजना का श्रुंगार और अपनी  बात को नये ढंग से कहने की कला ! मोनिका हठीला की रचनाओं में यह कौशल भली भाँति उभर कर आया है!सहज सीधे सादे शब्दों में बिना किसी आडम्बर के अपनी बात कह पाने का जो हूनर उनकी रचनाओ में दिखाय  देता है वहाँ तक पहोंचने में कड़ी साधना की जरुरत  होती है! अपने गित में लेखन का ज़िक्र  करते हुवे कहती है-
            
घिर आई, रंग भरी शाम !
एक गीत और  तेरे नाम !!

कलियों के मधुबन से गीतों के छंद चुने !
सिन्दूरी क्षितिजो से सपनों के तार बुने !

सपनों का तार तार वृन्दावन धाम !!
एक गीत और  तेरे नाम !!

खोज रही बिम्ब एक सुधियों के दर्पण में !
थिरक रहा पल-पल जो एस दिल के आँगन में !

आँगन में कर ले जो पल भर विश्राम !!
 एक गीत और  तेरे नाम !!

ढूँढ -ढूँढ कर हारी दिन तलाशते बीता !
जीवन घट बूँद-बूँद रिसते-रिसते रीता !

रीत-रीत कर राधा बन बैठी  श्याम !!
एक गीत और  तेरे नाम !!

              और तुम्हारे नाम नाम लिखते लिखते जब यह कलम अपने आसपास देखती है तो व्यवस्था की अस्तव्यस्तता और टूटते हुए सपनों के ढेरों से जुड़े हुए राजनीती से अछुती नहीं रह पाती वे एक शेर में लिखती  है -

सारे कौए ओढ के चादर आज बन गये बगुले  
अंधियारे  ने रहन रख लिया आज उजाला है. 

                मुझे मोनिका जी की और एक ग़ज़ल इस क़िताब से याद आती है! जब दिल्ली  का रेप केस जहन में आता है इस हादसे पर कई शायरो ने कविओ ने बहोत कूछ लिख्खा है पर मोनिकाजी ने जो कहा वो पिडा सिर्फ कवि की नही पर मां-बाप की है वो गज़ल उनकी आवाज़ में सुनने का अपना मजा है वो ग़ज़ल है-
उसकी मुट्ठी में जान होती है 
जिसकी बेटी जवान होती है 

हाँक दो जिस तरफ़,चली जाएँ 
बेटियाँ बेजूबान होती है 

जैसा चाहे जुका लो इनको तुम 
बेटीयां तो कमान होती है 

बेटे होते है पहाड़ के जेसे 
बेटियाँ आसमान होती है 

मोतियों सा संभाल कर रखना 
बेटीयां घर की शान होती है 

                कूल मिला कर  इस काव्य संग्रह में सब कूछ है गित,ग़ज़ल,छंद-मुक्तक,मौसम के गीत,होली गीत लेकिन मोनिका न केवल गीतों को अपने शब्दों से सजाती है बल्कि गज़ले भी वो सजाती है!छोटी बहर हो या लम्बी,मोनिका ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में बया की है!उनकी ग़ज़लों के चंद अशआर पढ़े बिना यह ज़िक्र अधूरा रह जायेगा! कूछ शेर खांस -
    
सुबह रोती मिली चाँदनी 
रात जिससे सुहानी हुई  
* * * * *
मैने जाना जबसे तुमको 
खुद से ही अंजान हो गई 
* * *
आप के हुक्म पर होंठ सी तो लिये 
गीत पायल लुटाये तो मै क्या करूं 
* * * * *
हर कोई पूछता है मुझसे उदासी का सबब 
कैसे बतलाऊ जमाने को कि क्या बात हुई 
* * * * *
इतने सारे रंगो में कोई भी नही सजता 
उन हसीन यादो के रंग इतने गहरे हैं 
* * * * *
राह कांटो भरी हैं  कुछ ग़म नहीं 
आप है हम सफ़र,और क्या चाहिए 
* * *
                       इस काव्य संग्रह के अनुक्रम में 1२ गीत, मौसम के गीत-दोहे ७, २० ग़ज़ल,होली के गीत ८ और बाकी छन्द और मुक्तक है!किताब का मूल्य है- 250 ! इस किताब को पाने का आसन तरीका अगर कोई है तो वो जरिया है अजित परमार आतुर! आतुर का मो. नं.09825236840.! क्यू की मोनिका जी आज कल भुज (गुजरात) में है ! आतुर से बात कर के इस किताब को मंगवाया जा सकता है !

                  एक और तरीका है किताब पाने का जो किताब में लिख्खा है -

मोनिका हठीला ( भोजक ) 
द्वारा श्री प्रशांत भोजक 
मकान नं बी- 164
आर. टी. ओ. रिलोकेशन साईट 
भुज,कच्छ ( गुजरात )
संपर्क : 098258 51121
और 
प्रकाशक : शिवना प्रकाशक 
पि.सी. लैब, सम्राट कोम्प्लेक्स बेसमेंट 
बस स्टेंड, सीहोर - 466001 ( म. प्र. )
  
               मोनिकाजी के बारे में बताऊ तो सीहोर म. प्र.  में जन्मी है और अपने पति प्रशांतजी के साथ भुज में है ! मोनिकाजी के पिता श्री रमेश हठीला भी जाने मने कवि है! गुरु है श्री नारायण कासट जी!आप से बीदा लेते लेते बता दु मोनिकाजी प्रसिध्ध साहित्यिक संस्था शिवना से जुड़ी हुई है और वही पर सीखी है ! और हाँ अगर आप कही मुशायरे,कवि संमेलन का आयोजन कर रहे है तो मेरी दरखास्त है आपसे जरुर मोनिकाजी को याद करना ! कुमार विश्वास के साथ भी वे अक्सर मुशायरे में दिखाय देती है ! जाते जाते उनका एक वीडियो -

मोनिका की जी काव्य संमेलन में 


( ईस पोस्ट लिखने में मुझसे कोई ग़लती हुवी हो तो आप सब की क्षमा चाहता हूँ )

Wednesday 10 April 2013

मुनव्वर राना

                          

किसी को घर मिला हिस्से  में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरी हिस्से में माँ आई
मुनव्वर राना



लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

उछलते खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी
तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कुराती है

तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है
कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क आता है
मसायल से घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है

बड़ा गहरा तअल्लुक़ है सियासत से तबाही का
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है.



मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है

हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है
ये हर कुत्ते आगे शाही टुकड़ा डाल देती है

कहाँ की हिजरतें कैसा सफ़र कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

हसद की आग में जलती है सारी रात वह औरत
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है



सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता

हम कि शायर हैं सियासत नहीं आती हमको
हमसे मँह देख के लहजा नहीं बदला जाता

हम फ़क़ीरों को फ़क़ीरी का नशा रहता है
वरना क्या शहर में शजरा नहीं बदला जाता

ऐसा लगता है कि वो भूल गया है हमको
अब कभी खिड़की का पर्दा नहीं बदला जाता

अब रुलाया है तो हँसने पे न मजबूर करो
रोज़ बीमार का नुस्ख़ा नहीं बदला जाता

ग़म से फ़ुर्सत ही कहाँ है कि तुझे याद करूँ
इतनी लाशें हों तो काँधा नहीं बदला जाता

उम्र इक तल्ख़ हक़ीक़त है मुनव्वरफिर भी
     जितने तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता.
           

- मुनव्वर राना