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Sunday 3 March 2013

फ़रहत शहज़ाद की गज़लें



खुली जो आँख तो वो था न वो जमाना था 
दहकती  आग थी, तन्हाई, थी फ़साना था 

ये क्या के चंद ही कदमो पे थक के बैठ गये 
तुम्हें  तो  साथ  मेरा  दूर तक निभाना था 

ग़मो  ने बाँट  लिया  है मुजे  यूं  आपस में 
के  जैसे  मैं  क़ोई  लूटा  हूआ  ख़ज़ाना था 

मुझे  जो  मेरे  लहू   में  डुबो  के  गुजरा है 

वो  कोंई  गैर  नहि  यार  एक   पुराना  था 

ख़ुद अपने हाथ से 'शहज़ाद' उस को काट दिया 

के जिस दरख्त के टहनी पे आशियाना था 


फ़रहत शहज़ाद 


फ़रहत शहज़ाद