Monday 4 March 2013

फ़रहत शहज़ाद

फरहत शहज़ाद की ग़ज़लें 



आँखों आँखों एक ही चहेरा
धड़कन धड़कन एक ही नाम

- फ़रहात शहज़ाद


भटका भटका फिरता हूँ 
गोया सूखा पत्ता हूँ 

साथ जमाना है लेकिन 
तनहा तनहा रहता हूँ 

धड्कन धड़कन ज़ख़्मी है 

फिर भी हसता रहेता हूँ 

जबसे तुमको देखा है

ख़ाब ही देखा करता हूँ

तुम पर हर्फ़ न आ जाये 

दीवारों से डरता हूँ 

मुझ पर तो खुल जा 'शहज़ाद'

मैं तो तेरा अपना हूँ



एक तो चेहरा ऐसा हो 
मेरे लिए जो सजता हो 

शाम ढले एक दरवाज़ा 
राह मेरी भी तकता हो 

मेरा दुःख वो समजेगा 
मेरी तरह जो तनहा हो 

एक सुहाना मुस्तकबिल 
ख़ाब सा जैसे देखा हो 

अब 'शहज़ाद' वो दीपक है 
जो तूफ़ान में जलता हो 



फ़ैसला तुमको भूल जाने का 
इक नया ख़ाब है दीवाने का 

दिल कली का लरज़ लरज़ उठा 
ज़िक्र था फिर बहार आने का

हौसला कम किसी में होता है
जीत कर ख़ुद ही हार जाने का 

जिंदगी कट गई मनाते हुए 
अब इरादा है रूठ जाने का 

आप 'शहज़ाद' की न फ़िक्र करे 
वो तो आदी है ज़ख्म खाने का 


इससे पहले के बात टल जाये
आओ एक दौर और चल जाये

आँसुओं से भरी हुई आँखें
रोशनी जिस तरह पिघल जाये

दिल वो नादान शोख़ बच्चा है
आग छूने पे जो मचल जाये

तुझको पाने की आस के फल से
ज़िंदगी की रिदा न ढल जाये

बख़्त मौसम हवा का रुख़ जाना
कौन जाने के कब बदल जाये




खा कर ज़ख़्म दुआ दी हमने
बस यूँ उम्र बिता दी हमने


रात कुछ ऐसे दिल दुखता था
जैसे आस बुझा दी हमने

सन्नाटे के शहर में तुझको
बे-आवाज़ सदा दी हमने


होश जिसे कहती है दुनिया
वो दीवार गिरा दी हमने


याद को तेरी टूट के चाहा
दिल को ख़ूब सज़ा दी हमने


'शह्ज़ाद' तुझे समझायें
क्यूँ कर उम्र गँवा दी हमने





लुत्फ़ जो उसके इंतजार में है
वो  कहाँ मौसम-ए-बहार में है

हुस्न जितना है गाहे गाहे में
कब मुलाकात-ए-बार-बार में है

जान-ओ-दील से में हारता ही रहू
गर तेरी जीत मेरी हार में है

जिंदगी भर की चाहतों का सिला
दील में पैबस्त नोक-ए-खार में है

क्या हुआ गर ख़ुशी नही बस में
मरना तो इख़्तियार में है



लमहों की जागीर लुटा कर बैठे है
हम घर की दहलीज़ पे आ कर बैठे है

लिखने को उनवान कहाँ से लाये अब
काग़ज़ से एक नाम मिटा कर बैठे है

हो पाए तो हँस कर दो पल बात करो 
हम परदेसी दूर से आ कर बैठे है

उठेंगे जब दिल तेरा भर जायेगा
ख़ुद को तेरा खेल बना कर बैठे है

जब चाहो गुल शम्मा कर देना 'शहज़ाद'
हम अंदर का दीप जला कर बैठे है




मर मर कर जीना छोड़ दिया 
लो हमने पिना छोड़ दिया 

खाबों के खयाली धागों से 
ज़ख्मों को सीना छोड़ दिया

ढलते ही शाम सुलू होना 
हमने वो करीना छोड़ दिया

तूफ़ान हमे वो रास आया
के हमने सफीना छोड़ दिया

मय क्या छोड़ी के लगता है
 जीते जी जीना छोड़ दिया

'शहज़ाद' ने खाबों में जिना
ऐ शोख़ हसीना छोड़ दिया



तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है 
मुझे तु  मेरे दुःख जैसा लगे है 

चमन सारा कहे है फूल जिसको
मेरे आँखों को तुज चेहरा लगे है

रगों में तेरी ख्वाहिश बह रही है
ज़माने को लहू दिल का लगे है

हर इक मजबूर सीने में मुझे तो
धड़कन वाला दिल अपना लगे है

सफर कैसा चुना 'शहज़ाद' तूने
हर एक मंजिल यहाँ रस्ता लगे है


* * *




ज़िंदगी को उदास कर भी गया
वो के मौसम था इक गुज़र भी गया



सारे हमदर्द बिछड़े जाते हैं
दिल को रोते ही थे जिगर भी गया



ख़ैर मंज़िल तो हमको क्या मिलती
शौक़-ए-मंज़िल में हमसफ़र भी गया


मौत से हार मान ली आख़िर
चेहरा-ए-ज़िंदगी उतर भी गया


क्या टूटा है अन्दर अन्दर, क्यू चेहरा कुम्हलाया है
तनहा तनहा रोने वालों, कौन तुम्हें याद आया 

चुपके चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने

इक तारे ने टूट के यारों, क्या उनको समजाया है ?

रंग बिरंगी इस महफ़िल में, तुम क्यूं इतने चुप चुप हो

भूल भी जाओ पागल लोगों, क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ है खून है दिल का, जो लफ्जों में बिखरा है

दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है

अब 'शेह्ज़ाद' ये जूठ न बोलो, वो इतने बेदर्द नहीं

अपनी चाहत को अभी परखो, गर इलज़ाम लगाया है 
                                 * * *

सबके दिल में रहता हूँ, पर दिल का आँगन खाली है 
खुशिया बाँट रहा हु जग में अपना दामन खाली है 

गूल रुत आयी कलियाँ चटकी पत्ती पती मुस्काई 
पर इक भंवरा ना होने से गुलशन गुलशन खाली है

दर दर की ठुकराई हुयी अई महबूबे तनहाई
आ मिल जुल कर रह ले, इसमें दिल का नशेमन खाली है

 फ़रहात शहज़ाद

14 comments:

  1. आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 01/05/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

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  2. बहुत खूबसूरती से रची रचना
    उम्दा अभिव्यक्ति

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  3. farhat sahab ka jvab nhi waaaaaaaaaaah
    mahendi hsan or gulam ali dono ki aavaz soonai de rhi hai

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  4. वाह ......बेहतरीन ग़ज़लें

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  5. छोटे काफिया की बेहतरीन गज़लें !

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  6. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 21 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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